फोटो साभार-google |
जगत तुम, जननी मैं
फिर एक पर बंधन क्यों ?
साथ खेले, साथ हुए बड़े
फिर चौखट पर लकीर क्यों ?
पुरुषार्थ का पाखंड बहुत हुआ
उत्थान के भागीदार हम भी
चूल्हा-चौका नहीं, उससे भी ज्यादा
करने का कर लिया इरादा
जंगल में शिकार की तरह
ज़िस्म को घूरते, भेदते रहते हो
आंखों को नहीं आती लाज
तब मर्यादा नहीं आती याद
साड़ी, समीज के बाद अब फ्रॉक
डायपर पहनी पहुंच रही यमलोक
आबरू का ये क्या अंजाम हुआ ?
क्या रक्षाबंधन नाकाम हुआ ?
बाजू को अब खुद ही उठाना होगा
सिर काट कर काली कहलाना होगा
महिषासुर की धाती भेदनी होगी
नारी तुम्हें शक्ति जगानी होगी
कब तक सीता बनकर अग्निपरीक्षा दोगी ?
सति बनकर मर्यादा का बोझ ढोओगी
राधा और मीरा की भूमिका का दौर नहीं
दुर्गा हो तुम, तुमसे बड़ा कोई और नहीं
लाज का ताज नारी के हवाले
मान का मुकुट नर के पाले
सभ्यता की जब ऐसी रीत रही
दु:शासनों की यही जीत रही
जन्म देना ही बड़ा एहसान है
मां से बड़ा क्या नाम है?
बहन की मुस्कान संसार है
भाई तुम्हें किस बात का अभिमान है?
पुरुष से प्रतिस्पर्धा नहीं
श्रद्धा का मान चाहिए
कदम मिलाकर चलने का
स्वाभिमान चाहिए
- निशांत कुमार
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