फोटो साभार- Deccan Chronicle |
धरा भरी है
डर की घड़ी है
ये जल का युद्ध घोष है
मनुष्य बता किसका दोष है ?
बूंदे बेरहम हो गई
खेत की रौनक ले गई
बचे बाजुओं में वो दम कहां ?
नीर को रोके, वो कृष्ण कहां ?
घन का कोप
सरि की विवशता
अरण्य को लूटने वाले
जीवों में श्रेष्ठ तुम कैसे कहलाए ?
नदियों को तुमने बंदी बनाया
स्वार्थ में सबका मज़ाक उड़ाया
तुम प्रलय को ललकारते रहे
विज्ञान से उसे डराते रहे
कैसा मंजर अब पसर रहा ?
कचरा घर में सड़ रहा
पड़ गए हैं शक्य के लाले
हाथों में हैं गंदे पानी के प्याले
जीवन तुम्हे बख्स देंगे
करो वादा, अति नहीं करेंगे
सत्व तुम्हारी जगत पर नही चलेगी
मनमानी पर सज़ा मिलेगी
- निशांत कुमार
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शक्य- अनाज
कोप- गुस्सा
घन- बादल
सरि- नदी
सत्व- जोर
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