फोटो आभार- गूगल |
आज़ादी का पट्टा है
बस साल गए बीत
उपनाम की वही है रीत
आरक्षण पर दंगल है
नारी पर सोच भी तो जंगल है
बस हाल की बची है खाल
वहीं पड़े है स्कूल-अस्पताल
अब भी बंटने का जख्म
सुनते हैं वही सियासी नज़्म
टोपी-चंदन में बंट गए
आज़ाद सोच से कट गए
देशभक्ति का दौर देखो
गद्दार कहने की होड़ देखो
जिसने लड़ी मातृभूमि की जंग
उसी पर सियासत है बुलंद
कर्कश बहुत स्वर है
फिर भी इस पर गर्व है
कौन है बदलने को तैयार ?
मन को दुखी करते ये विचार
- निशांत कुमार
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