Thursday 26 July 2018

झप्पी और माफी से लौटेगा राजनीति का वो दौर...



राहुल की झप्पी
वाह वाह
अब गडकरी की माफी
वाह वाह
राजनीति में लौटेगा वो दौर
वाह वाह

Is this change ? India changed ?


आदमी को जिंदगी में सकारात्मक होना चाहिए । वैसे दुनिया में इस तत्व की बहुत कमी होती जा रही है । हाल ही में संसद से राजनीति की सकारात्मक तस्वीर देखने को मिली । सदाचार की दो तस्वीरें । एक राहुल गांधी की और दूसरी नितिन गडकरी की । इनको देखने का अपना-अपना नजरिया हो सकता है । किसी को राहुल अच्छे लग सकते हैं । किसी को गडकरी । लेकिन मुद्दा राजनीति सदाचार है । पर्सनल पॉलिटिक्स से ऊपर उठने की बात है । सवाल ये है कि मौजूदा दौर की राजनिति में क्या ये स्थापित हो पाएगा ?

एक जवाब है- क्यों नहीं ?
दूसरा जवाब है- इससे कुछ नहीं होगा ।

सिंधिया से माफी मांगते नितिन गडकरी

कांग्रेस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया


मध्य प्रदेश के गुना में एक सरकारी कार्यक्रम में वहां के कांग्रेस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को नहीं बुलाने जाने का मुद्दा लोकसभा में उठा ।  सिंधिया लोकसभा में विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव लेकर आए । जवाब देते हुए केंद्रीय मंत्री ने गलती मानी । और माफी भी ।

इससे पहले राहुल लोकसभा में पीएम नरेंद्र मोदी से गले मिले थे । उनका कहना था कि पीएम उन्हें पप्पू कहते हैं लेकिन उनके दिल में जरा भी गुस्सा नहीं है । अगर आंख मारने वाले प्रसंग को छोड़ दें  तो ये सदाचार ही कहलाएगा ।


तस्वीर सौजन्य लोकसभा टीवी
लंबे समय से संसद में ऐसे उदाहरणों की कमी-सी हो गई । राज्यों की विधानसभा में भी ऐसे नजारे अब नहीं दिखते । धीरे-धीरे बहस की जगह शोर ने ले लिया । लंबे चलने वाले सत्र छोटे होते चले गए । जनमुद्दों की जगह पर्सनल अटैक सुर्खियां बटोरने लगे । और राजनीति में जिसे देखो वही अटपटे बयानों का एक से बढ़कर उदाहरण प्रस्तुत करने लगा । इस तरह की राजनीति के कई कारण है । जिनमें जातिवाद की राजनीति, आरक्षण पर हल्ला और धर्म को वोट में बदलने का चलन भी शामिल है । क्षेत्रवाद पर भी उन्माद फैलाकर वोट लेने का दौर देश ने देखा है ।  

हमारे देश में राजनीति का गौरवशाली इतिहास रहा है । नेहरू के लिए लोकतंत्र का तात्पर्य एक ऐसा उत्तरदायित्वपूर्ण तथा जवाब देनेवाली राजनीतिक प्रणाली था, जिसमें विचार-विमर्श और प्रक्रिया के माध्यम से शासन हो । संसदीय परंपराओं के निर्वाह, ज्वलंतशील मुद्दों पर अपनी राय रखने और विरोधियों को भी अपनी बात कह देने में नेहरू का कोई सानी नहीं था । 1957 में जब वाजपेयी पहली बार लोक सभा में चुन कर आए थे तो नेहरू उनसे इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने ऐलान किया कि एक दिन यह व्यक्ति भारत का प्रधानमंत्री बनेगा. लगभग चालीस साल बाद यह बात सच हुई । अटलजी भी संसदीय परंपरा और राजनीतिक मूल्यों पर चलने वाले राजनेता रहे हैं । 

भारत की राजनीति में आज कितने लोग हैं जो अपने विरोधी के बारे में इतनी ऊंची राय रखते हैं  और उससे बढ़ कर उसे सार्वजनिक रूप से कहने की हिम्मत रखते हैं। ये सदाचार वैसे ही गायब होता चला गया जैसे आजादी के बाद देश से गांधिगिरी । लेकिन फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' ने गांधिगिरी का अगल ही स्वरूप लोगों के बीच रखा । काफी हद तो ये लोकप्रिय भी हुआ । क्या राजनीति में भी झप्पी और माफी इसी रुप को ओढ़े आई है  ? जब भी गले मिलने की बात होगी राहुल के आंख मारने वाली तस्वीर भी सामने होगी । जैसे ही लेकिन चलो शुरुआत तो किसी ने की । लेकिन ये यहीं खत्म नहीं होना चाहिए । गडकरी के बाद ये आगे बढ़ना चाहिए ।
राजनीति में आज लड़ाई लड़ने से ज्यादा लड़ाई को दिखाने का चलन बढ़ा है । सोशल मीडिया पर प्रदर्शन का रोग फैला है । ना कोई नियम, ना कोई डर , जिसे चाहे करो ट्रोल । अब ऐसा होगा तो जनमुद्दे से ज्यादा प्रदर्शनवादी राजनीति और पर्सनल अटैक कैसे कम होंगे  ?  लेकिन इसे बदलने के लिए किसी को तो आगे आना होगा । कहते भी हैं- सफर पहले कदम से ही शुरू होता है ।




No comments:

Post a Comment

मेरी पहली किताब (MY FIRST BOOK)

साथियों, मैं ब्लॉग कम ही लिख पाता हूं, इसलिए नहीं कि लिखना नहीं चाहता । दरअसल मैंने लिखने का सारा वक्त अपनी किताब को दे दिया । एक विद्यार्थी...