इस बार भी नाकाम हूं
अंक पाकर भी गुमनाम हूं
बारी मेरी ऐसी है
पिछली रोटी जैसी है
सपने मेरे महंगे हैं
और क्या मुझे सहने हैं
कलयुग का 'कर्ण 'हूं
भुगत रहा दंड हूं
अब स्वर उठा है
भोर हो
पुराने नियम बदलने पर
जोर हो
धरती ही नहीं घूमती
मनुष्य भी चक्कर लगाता है
वर्ण व्यवस्था में शीर्ष वाला भी
शून्य पर आता है
कल तुम थे दुर्बल
माना हम थे सबल
अपना पराभव देख लिया
आरक्षण बहुत झेल लिया
समानता ही मेल है
सियासत तो खेल है
आबादी वाला आबाद है
बाकी की क्या औकात है
- निशांत कुमार
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